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इन पंक्तियों के पात्र ने शायद जिन्दगी की कड़वाहट को बहुत ज्यादा चखा ,उनकी जाग्रत सब संवेदनाएँ कठोर मरुभूमि सी ..,उनमें स्वीक्रति की कहीं कोई नमी महसूस नहीं होती ।मैनें जब -जब उनसे संवाद करना चाहा-प्रति उत्तर में उसने मुहं पर अंगुली रखकर ….?उसकी संकेतिक भाषा ..आँखों के भाव ….जो मैनें पड़े ,उनका नाम है …………………………भावनाओं का ज्वार
-रिश्तों के किसी भी ।
कपट -जाल में पड़ना नहीं चाहती ।।
– अब- तो शाब्दिक लिबास के ।
सकल्पों को भी ओड़ना नहीं चाहती ।।
– भूख -प्यास की त्रिश्नाएं ?
पानी- रेत में खोजना नहीं चाहती ।।
-किसी निष्कंटक वन में हिरनी सी ।
बेताल पांव नाचना भी नहीं चाहती ।।
– विश्वास के निरीह पंखों पर।
आकाश को भी छूना नहीं चाहती ।।
बस मिट्टी के अँधेरे -गर्भ में ।
अपनी के अंकुर तोडना चाहती है ।।
-कल- आज-कल में ।
अपने अस्तित्व को छूना चाहती है ।।
एक और एक -शून्य भी लगता है ?
एक और एक -जोड़ दो भी लगता है ?
स्वरचित
सीमा सिंह
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