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एक थी वैदेही

khwahishein yeh bhi hain
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कभी-कभी अपने आस-पास एक आहट सी महसूस होती है-जो अनजानी ,बेशक्ल और गुमनाम सी ……फिर यही अनजानी.बेशक्ल ,गुमनाम आहटे कविता की सूरत और चरित्त बन जाती हैं।वैदेही मुझे यूँ ही मिल गई थी ,उसे ढूढने दूर नहीं जाना पड़ा था ,वह एक सफर के दौरान सामने की बर्थ पर..मेरे सामने थी ,बस संक्षिप्त सा परिचय हुआ था -पर बहुत सघन,आत्मीयता के स्पर्श तक । सो हुआ ये वह मेरी सोच के गोशे में आकर बैठ गई और आज -ख्वाब में आकर कहने लगी- ऐ ट्रेन वाली-सह्रदयी हमसफर मसाफिर आप तो मुझे भूल ही गई और साथ में अपना किया हुआ वादा भी ? आप ने ही कहा था ,मैं तुम्हारा परिचय एक दिन तुम से कराऊंगी ,और तब तुम से पुछूँगी…कि वैदेही से मैं कितनी परिचित हूँ,उसके विषय में मेरे कवित्व का गणित कितना सही है और कितना …..?
वैदेही-तम्हारे जबाव का इंतजार रहेगा ….इस यकीन के साथ-कि आज नहीं तो कल-कल नहीं तो फिर कल….तुम-जिन्दगी के किसी मोड़ पर अचानक- इत्फाकन मिल जाओगी और कहोगी ,मैं वैदेही …..सपने कभी-कभी सच भी होते हैं …..?
एक थी वैदेही –
– अपने तबके का …एक ?
-अनचाहा चेहरा हूँ -मैं
-समूहगान में जैसे के ..
-कर्कश -स्वर ।।
-अविवादित …..
-उपहास और व्यंग्य में ..
-मेरा ही माथा सबको -भाता ..।
-सब -खुश रहते ..
– सबके- चेहरे मलिन मुक्त रहते ..
-मैं -बच गया ….।।
-सबके चेहरों के भाव देखकर …..
-कह सकती हूँ ….।।
-घर के आईनेखाने का ..
-एक भी चेहरा- मेरा अपना नहीं ?
-सिर्फ माँ की ख़ामोशी का- अंतरद्वंद ..
-परछाई सा मुझमें -हिलोरे लेता और कौंधता ..?
-भाग्य की मींठी -लोरी सुनने को ..
-दीन-हीन मैं …?
-भाग्यविधाता-निष्ठुर हो कोसों -दूर खड़ा …
-पर -कोसा नहीं,चोर को चोर भी नहीं कहा..।।
-लोग कहते हैं …
-मैं व्यवहारिक नहीं ..
-मेरे ह्रदय में अनुभूति का कोई जंजीरा नहीं ?
-स्मृतियों के -दिशा भ्रम में ..
-कई घरौंदे बनाये ..
-गीली -रेत में ..
-जिन्हें कभी ज्वारभाटा -बहा ले गया ..
और
-कभी राहगीरों ने उन पे अपनी छाप -छोड़ दी ।।
स्वरचित
सीमा सिंह

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