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कर्णिका -सहगल मैडम की पेइंग-गेस्ट थी ।उन दिनों सहगल मैडम बोरीबली वाले घर में -एक चौकीदार और पपी “डागी”के साथ रहती थीं ,उनके एक बेटी और एक बेटा थे ।जो उस वक्त अमेरिका में रहते थे ,सहगल मैडम किसी जमाने में एक कामयाब हस्ती थीं उन्होंने- स्वयं ही भाग -दौड़ की जिन्दगी से तौबा कर ली थी,कभी -कभी उन्मुक्त भाव से वह कहती -क्यों और किसके लिए ,पावों में छाले डालूं -बहुत किया काम, बहुत कमाया नाम ?बस….अब मुझे करना है आराम! और ढूंढने हैं कुछ मुकाम ….वह बहुत शांत और एकांकी प्रिय स्वभाव की सरल और भद्र महिला थीं ।उन्होंने जिन्दगी अपनी शर्तों पर और दुनियां को अंगूठा दिखाकर जी थी -यह बात उनकी मौत की शोक -सभा में भीड़ को देखकर और अनेको चेहरों की गीली -आंखें बता रही थीं कि वह दिल कि कितनी समद्ध और करुणा की छाया थीं , उन्होंने कितने ही लोगों को “पीछे रहकर” खड़े होने की ताकत दी थीं ,और आज मुम्बई में कई ऐसे चेहरे हैं जिन्होंने उनका सम्बल पाकर अपनी एक अलग पहचान बनाई और नाम कमाया!,पर जीते- जी सहगल मैडम ने कभी अपने इस पहलू से परिचित नहीं हो ने दिया ।वह बहुत जिन्दा -दिल औरत थीं -मैंने उनके जैसी औरत अभी तक नहीं देखी? शायद इसी लिए वह मेरी- आदर्श महिलाओं में पहली औरत का….!
कर्णिका उनके घर की ऊपरी मंजिल पर -जो कभी उनके बेटे का आवास होता था ,सहगल मैडम ने उसे यहाँ रहने की इजाजत इसी शर्त पर दी थी कि उनके बेटे निशांत का सामान जूँ का तूँ रखा रहेगा ,और उसके आने पर तुरंत वहाँ से कर्णिका को बोरिया -बिस्तर समेत कर जाना होगा । उन- दिनों वह मुम्बई की हवा -पानी की बुसाहट से उकता कर, अमेरिका गई हुई थीं ।,शनिवार व रविवार की छुट्टी थी। कर्णिका ने अपने साथ चलने की बहुत जिद की ,सो मैं उसके आग्रह को न टाल सकी !और उसके साथ आ गई -वहां..नई जगह होने के कारण मुझे नींद नहीं आ रही थी , सो मैं ड्राइंग-रूम में किताबों से भरे बुक-सैल्फ में अपनी रूचि की किताब….?आखिर एक किताब में मुझे अपने मिजाज का मसाला मिल गया ….,हालाकिं मैं ने वह किताब जिज्ञासा बस ही उठाई थी ।किन्तु …? उस किताब की हालत -कह रही थी कि- मुझ से पहले पढने वाले शख्स ने -शायद बार -बार पढ़ी थी,एक तरह से घिस दी थी ,किताब की हालत बता रही थी कि वह अपने मालिक कि पसंदीदा किताबों में आती थी ,क्योंकि उसमें जगह -जगह” अलग -अलग रंगों की पेसिलों से अंडर-लाइनें कर रखी थी ,उनका मतलब मेरी समझ और बुद्धि से परे था,” शायद इसी लिए वह किताब -आज तक भी याद है ।किताब वाकई में …..,किन्तु उससे ज्यादा रोचक पूर्ण उस किताब में ,छोटी -छोटी लिखी गई टिप्पणियां -मुझे अधिक रोमांचक और काम की लग रहीं थीं -उसमें एक टिप्पणी इगित करती है कि मोहब्बत -दुनियां कि सबसे बड़ी और पौराणिक मदरसा और इबादत गाह का तसब्बुर है, यह दुनियां का पहला अक्षर और पहली ध्वनी है। इसके बगैर कोई भी प्रार्थना पूरी नहीं होती ,जो लोग इससे इंकार करते हैं ,वह झूठ कहते हैं “ऐसा कहते हुए मुझे जरा भी अफ़सोस नहीं होता “,इसके तसब्बुर के साथ जो जीता है, उसके लिए इंसानी -सूरतों द्वारा ईजाद की गई- मजहबों की न तो कोई- सरहद होती न ही- दीवार,अहसास को जिन्दा रखने को मुझे कितने ही बड़े इम्तहान से गुजरना पड़े ? मैं पीछे नहीं हटूंगा क्योंकि यह आदि से और अब -तक इन्सान की जुवां का पहला अक्षर है और सासों का आखिरी लफ्ज भी …! यहीं मुझे— यादें दरवाजा …खटखटा रहीं हैं ?—का तसब्बुर मिला …………,और …………………….!
यादें दरवाजा …खटखटा रहीं हैं ?
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१—— बारिश की ….
बौछारों की छींटें ….
सेहन-तक आ रहीं हैं …
और ……?
यादें- दरवाजा ..खटखटा रहीं हैं …
मोहब्बत की ,रूहानी ताकतें …
दीवारें- गिरा रहीं हैं ……
रास्ता -बता रहीं हैं ….।
ख्वावों की “बांधे घुंघरू”..
परियां ..! जगा रहीं हैं
दुनियां भुला रहीं हैं…..।।
२——- दरिया के -पानियों की …
है प्यास ? तिश्नगी की ….
मौजें ,हवाएं …..
अपने -ले साथ जा रहीं हैं ….।।
३——– चेहरे ,नसीब -बाले ……
मिल जाए ..!काश हमको ..?
दिल की सदाएं …..
उनको …….
अब -तक बुला -रहीं हैं ।।
स्वरचित -सीमा सिंह ।।
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