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अपनी -लक्ष्मण रेखा …….?

khwahishein yeh bhi hain
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अपनी -लक्ष्मण रेखा …….?
अक्सर -बहुत अच्छे लोग आगे बड़ने में पीछे रह जाते हैं ,ऐसे लोगों में न तो प्रतिभा की कमी होती है, और न ही वह मेहनत करने में “जीवन के किसी भी संघर्ष में पीछे रहते हैं” किन्तु ऐसे लोग अपने से ज्यादा अपने आस -पास मौजूद लोगों लिए सोचते और जीते हैं |और शायद इसी लिए वे आगे बड़ने से पिछड़ जाते हैं ,इस में बहुत हद तक परिस्थितियाँ उनके साथ ज्यादती करती हैं और वह अपने -अपनों के लिए संघर्ष करते -करते भूल जाते हैं कि उनकी भी जिन्दगी की कुछ जरूरतें थी ……या हैं …..किन्तु …..?
श्रद्धा- दी भी ऐसे ही स्वभाव की मालकिन थी ,वह चार बहन-भाइयों में सबसे बड़ी थी | पढ़ने में कुशाग्र बुद्धि और प्रतिभा शाली व्यक्तित्व की धनी थी | उनकी पूरी पढ़ाई भी न हो सकी थी कि अचानक एक सड़क हादसे में -उनके प्रोफेसर पापाजी की मौत हो गई ,सो कालेज प्रबन्धन ने मानवीय सहानुभूति रखते हुए श्रद्धा -दी को कालेज के दफ्तर में अस्थाई मामूली सी नौकरी पर रख लिया था ,उस नौकरी के साथ उन्होंने अपनी मेहनत के बल पर मास्टर -डिग्री हासिल की और स्थानीय महिला -कालेज में लेक्चरार हो गई,परिवार की आर्थिक विषम- परिस्थितियों के साथ संघर्ष करते हुए उन्होंने अपने से छोटे भाई -बहन को पूर्ण -शिक्षित होने के अवसर देने के साथ -साथ उन सब की शादियाँ कर उन्हें स्थापित करते -करते श्रद्धा -दी जीवन के चार सोपान -पार कर गई ,अब वह बूढ़ी हो चुकी माँ के साथ हवेली नुमां घर में एक तरह से अकेली ही रहती हैं क्योंकि उनकी माँ अक्सर ” रमता -जोगी सी कभी यहाँ कभी वहां -शायद जीवन की एक रसता से वह भी उकता चुकी होगी तभी ” अन्य बेटे और बेटी के पास आती -जाती रहती हैं | बाक़ी सब……क्या भाई क्या बहन अपने -अपने परिवार ,गृहस्थी में खुश थे -जो दी की अपनी -अपनी तरह से देख- भाल और परवाह भी करते थे ……!पर पड़ोस की भाभी और हमउम्र हो ने के साथ मैं उनके अंतर्मन की बातें अच्छे से समझती थी – अक्सर मैनें दी के चेहरे की उदासी…..? ऐसा नहीं था कि दी सुंदर नहीं थी या उनपर नव यौवन का बसंत नहीं आया था ,कितने ही सम्भ्रांत और शिक्षित परिवारों से उनके लिए विवाह के प्रस्ताव आये किन्तु दी जैसे अपनी जरूरतें ही भूल गई थीं |उनकी प्राथमिकताओं में उनके लिए उनका परिवार ही सर्वोपरि था और समय आगे निकल ……..?समय- कहां भला किसी का इंतजार करता है, सो-श्रद्धा दी के साथ भी समय ने वही सलूक किया ,जो उसका अलिखित नियम है ……! कुछ दिनों से वे घर में अकेली ही दिखाई दे रहीं थी ,एक शाम छत पर टहलते हुए मेरी भेंट हो गई -तब बहुत आग्रह करने पर उन्होंने मेरे साथ रात्रि -खाने पर आना स्वीकार किया ,और उस शाम उन्होंने- साथ में जीवन के ढेरों खट्टी -मीठे अनुभव बांटे…….आज- पड़ोस बाली श्रद्धा दी को जितना जानी और समझ सकी ,उन श्रद्धा दी के व्यक्तित्व की स्पष्ट छवि को मैंने इस कविता “अपनी -लक्ष्मण रेखा …..?में चित्राकंन करने की कोशिश की..
अपनी- लक्ष्मण रेखा……?
—–
मुझे …..
नहीं लगता …..|
अपनी ……….
लीक- से ……..
हट कर ……….
आगे -बढ़ पाऊँगी ……..|
किसी के………
पांव पे पांव रख कर …….
सुख -की ……….
सम्रद्धि -बटोर पाऊँगी ……|
1—- मेरा ……..
दुश्मन ……..
कोई- भी नहीं ………
सब …………
दोस्त हो ………
ऐसा -भी नहीं ……….
मेरे -विश्वास के …….
चारों -पाए………
मेरा -भार उठा सकेंगे ……
मुझे -नहीं लगता ……….|
२—- कोई …….
कैसे ……..
जान -सकता है …….
मेरे-मन में ……..
सूरज -उग रहा है ……
या
चाँद -उतर रहा है …….
या
अँधेरा -घट रहा है ……..!
३— मुझे ………..
नहीं -लगता …….
मैं ……….
अपनी -बनाई …..
लक्ष्मण -रेखा ……..
तोड़ – कर ……….
बाहर -आ पाऊँगी ……..
और ………..
आसमां- छू सकूँगी……..!|||
स्वरचित -सीमा सिंह ||||

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