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बचपन – के वो दिन ………….!
इस -बार मैं पूरी तरह से अपने -आप से तय करके गई थी कि फार्म -हॉउस बाले घर में -जाकर एक -दो दिन जरूर ठहरूंगी ,जब कि अब यहाँ पहले सा कुछ भी नहीं रहा – इस घर के सब धीरे -धीरे अपने -अपने रास्ते बना कर -शहर की ओर कूच कर गये , जो बचे उन्होंने आसमाँ से दोस्ती ……….! हालाँकि घर वही है पर उसके कोने -कोने में उदासी -बैठी भया भय सी लगती है ,यह वही घर है जिसके कोने -कोने में मेरे बचपन की तमाम स्मर्तियाँ खड़ी मुझे -आवाजें दे रहीं है, इस घर में उन दिनों कितनी चहल -कदमी रहती थी …….! कितने तमाम हम -घर के लोग थे और कितने तमाम ताया जी के पास कास्तकारों ” व्यापार के सिलसिले में ” का आना -जाना था …….! दूर -बैठे मुझे- यहाँ का- सारा कुछ यथा वत सा लगता था ……?पर सारा का सारा द्रश्य यहाँ का बदल गया ,क्यों न बदलता मैं भी तो बहुत बदल गई हूँ -ऐसा ही उलहना सा दे रहा है – आंगन के सामने बरामदे बाली दीवार की अलमारी में” आज भी” रखा शीशा – कंघी ” क्योंकि बड़े भइया की उपस्थिति – यह आश्वासन देती है कि अभी भी इस घर में रहने बाले लोगों में कोई यहाँ पर रहता है ” यह वही अलमारी जिसके ऊपर बाले खाने -तक पहुंचने के लिए मुझे लकड़ी के पायदान का सहारा लेना पड़ता था ,फिर न जाने मैं कब बड़ी हो गई ………..? बरामदे के भीतर बाले कमरे में जाने का मन नहीं हो रहा था क्योंकि उस कमरे के साथ बाली कोठरी में माँ का बक्सा और सन्दूक जिसमें माँ के ही हाथों से सहेज कर रखी गई चीजें थी , जिनसे शायद माँ की सुखद अनुभूतियाँ या कहूँ यादें ” प्राय : हर -एक औरत की कमजोरी होती हैं ” जुड़ी रही होगीं – बड़े भइया के बहुत कहने पर माँ के बक्से को “मन कठोर कर ” खोलने की हिम्मत जुटा सकी -स्वर्ग वासी माँ के उस खजाना रूपी – पिटारे में , हम भाई -बहनों की छोटी -छोटी कितनी ही चीजें जिन्हें-उन्होंने “माँ ” बड़े सम्भाल कर बक्से में रखे एक डिब्बे में बंद कर रखी हुई थी , माँ के बक्से से आज भी फिनायल – की जानी -पहचानी महक आ रही है और ऐसा लगता है कि माँ यहीं – कहीं आस -पास मौजूद है ………! पर माँ अब कहाँ है उनकी यादों की तर्श्नाएं हैं जो – मुझे भ्रमित का रहीं हैं आज मन के पटल पर -और भी बहुत कुछ मन और चिन्तन में उद्घाटित हो रहा है उसे मैं अपने स्वभावानुसार .कविता ” बचपन” के माध्यम से जोड़ कर ……………..!
बचपन – के वो दिन ……………….!
——–
उन -दिनों ………….
हम -…………..
सपने -खूब देखते थे ……..
अमूमन …………..
उसी – दुनियां में जीते थे ……….
कुछ – आगे -पीछे नहीं सोचते थे …….|
१— सोचते – भी क्यों ………..
हमारे – लिए ………..
सोचने – बाले ……..
बहुत – कुछ सोचते थे………..
हम – उन्हीं के हवाले ……….
अपना -भला , बुरा छोड़ते थे ………..||
२— उन -दिनों ………..
दुनियां -को ………….
हम – अलग से नहीं देखते थे ……….
शायद ………………
अपने – हस्ताक्षरों को ……….
पहचानते – नहीं थे ………….
रिश्तों – को …………
तर्क – की कसौटी पे ……….
बाँटते -नहीं थे ………….|||
३— हमारे – लिए ………..
खिलौने – ही ……………
जादू – थे ……….
चमत्कार – थे …………
या – कहूँ ………..
सब -सरोकार थे ……….
उन्हीं – से ……….
हम – हंसते ,बोलते ………
रुठते – मनाते थे ………..|||
४— उन – दिनों ……….
हम – बगीची में रोज जाते थे …..
दादू – की वाटिका में ……….
फूल – बहुत आते थे ………
उन – फूलों को ………..
हम – देखते – सूंघते और ललचाते ……..
पर – छेड़ते नहीं थे ……….
दादू – की हिदायत को तोड़ते नहीं थे …..||||
५ — बगीची – की ………
मन – मोहक ……..
तितलियों – के पीछे – पीछे …..
हम – दौड़ते खूब थे ……..
पर -पकड़ते नहीं थे ……..
उनके – कोमल पर नोंचते नहीं थे ……
६— उन – दिनों ………
हमारी – दोनों हथेलियों में ……..
सूरज,चाँद और सितारे ……….
इक – साथ उतरते थे ………..
हर – मौसम में ……..
आसमान – में इन्द्रधनुषी बादल…….
देख – देख के खुश होते थे ……..
माँ – के आंचल से ………
मुहं – ढक लेते थे ……….
बस – इसमें ही खुश रहते थे …….!||||||
स्वरचित – सीमा सिंह ||||||
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