khwahishein yeh bhi hain
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एक थका हुआ दिन …….?
एक
थका हुआ दिन ?
एक
बुझी हुई शाम ?
” आडम्बर रहित
अपनी – अपनी
आग – सुलगा रहे थे ”
जो
नंगे – पांव
सूखी रेत पे
गीले पैरों के
निशान ढूढ़ रहे थे
दूसरे – सिरे पे
समन्दर की कोख में
समाता हुआ सूरज
टूटी बेंच पे
बैठी परछाइयों को
आवाज लगा रहा था
मैं
अपनी तरफ
बड़ते हुए अँधेरे में
अनकहा
सहेजने जैसा
जो, महसूस कर रहा था
उसमें
डरी हुई
अपनी- मौजूदगी को
हाथों से
आँखें टटोलता ढूंढ़ रहा था
और
ठण्डी देह के साथ
टूटी चप्पल हाथ में उठाए
घर की ओर
बेतहाशा
दौड़ रहा था ।।।।
स्वरचित -सीमा सिंह ।।।
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