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ये- मर्म के आँसू ……….!

khwahishein yeh bhi hain
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ये- मर्म के आँसू ……….!
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तुम्हारे ,सौहार्द और निजता की
पीड़ा और संम्बेदना से
उपजे -मर्म के …
छल- छल लाये हुए ,
ये -गर्म आँसू ?
जमी -हुई …
बर्फ को पिघला सकते हैं,
पर
पत्थरों के सीने में
छेद ! नहीं कर सकते ;
तुम्हें
क्या लगता है
ये -टूटे हुए ,
उडान -के पंख
बिखरे -हुए ख्वाब ?
लफ्जों के ,मायने ?
सियासत की रंधी हुई
पंच -मेल ,खिचड़ी से,
कंकड़,पत्थर और
कांच की किरचे ?
तुम्हारे – नारे निकाल सकेंगे
शायद ! हाँ ,
यह सोच कर कि
अमावस्या की काली रात के बाद
आने-बाली …
सुबह- के सूरज के साथ
नये -मौसम की हवा
शायद ,अपने साथ
कोई जादुई -चिराग लाये
जिससे -सदाचार का दूत निकले
जो -दिशाओं के बदलने का
झंडा -ले के साथ चले
आगे चले,पीछे चले और
रास्ता -देता चले …
किन्तु ! तिल भर की
ये ,सम्भावना भर हैं ?
ये ,घरों से निकली जुगनुओं की कतारें
ये -मोमबत्तियों के उम्मीदें ?
शायद !कोई
सार्थक ,हल दे सकें ?
तम्हारे ,मर्म के आँसू ??
सीमा सिंह ||||

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