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खाईयों सी, यह गहरी-गहरी …?

khwahishein yeh bhi hain
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खाईयों सी, यह गहरी-गहरी …?
किसी गरीब- मजदूर औरत के मनोभावों को उकेरने का प्रयास है यह कविता …..!

खाईयों सी ,यह गहरी-गहरी
पांव की बिवाईयां ?
देखकर ,बहुत बार
क्षुब्धा और आत्म ग्लानि से
भर जाती हूँ और
सोचती हूँ …
इन -हड्डियाँ गला देने बाली
ठंडियों में भी ?
खून में इतनी गर्मी आई कहाँ से?
जब कि !मूगफलियाँ चबाने के आलावा
बादाम,अखरोट,काजू पिस्ता का स्वाद …
मीठा है या नमकीन या कुछ और ?
जानती तक नही,स्वाद तो स्वाद …
उन्हें ठीक से पहचानती तक नहीं ,
हो न हो …
यह भी हो सकता है ,
सर्दी-गर्मी के असर की बात हो ,
जो !हथेलियाँ ठंडी, पांव पसीजे और
बिवाईयां- गहरी- गहरी अपने- आप हो,आ दीखें …
जैसे- मौसम का कोई भी फूल,
अपने रंग ,रूप,गंध में आप से आप खिल निकले …!
सीमा सिंह ॥॥।

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