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माँ !तू कुछ बोलती नहीं …?

khwahishein yeh bhi hain
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माँ !तू कुछ बोलती नहीं …?

तेरी,असहमति में भी
अपनी- सहमति का सिर हिलते हुए,देखा है
देखा है- तेरे उठते हुए …
क्रोध के उबाल में,दबा-छुपा मलाल भी, देखा है
माँ !तेरे हाथों की रोटियाँ बहुत खाई और
गालों पे हाथों की पड़ी छापे भी, बहुत पाई
ये छापें !जब-तब रोक भी लेती हैं बढ़ते-बढ़ते पांव …
आग में जलते-जलते,खींच लेतीं हैं,पीछे से हाथ
माँ !तुझे क्या लगता है
मेरे -खून में आता नहीं उबाल …
आता है, इसमें ज्वार साथ में आता है तूफान
पर अँधेरे में ,होता नहीं इसका भान
माँ ! मैं – कई बार पढ़ावों पे रुक जाता हूँ …
थक के सुस्ताता हूँ,ठंडाता हूँ ,
तब – अनुभूतियों में खो जाता हूँ
तुझे -आस-पास पाता हूँ
माँ ! सच बता,तूने मुझमें घनी- स्मृतियों के ये
बीज- कहाँ से बोये,ये पेड़ कहाँ से उगाये ?
जो मुझ थके – पथिक को देते हैं मीठी- छाँव
जो मेरी राह के काँटों को ,चुपचाप देते है बुहार
माँ !तू ,कुछ बोलती नहीं ?
तू -मिट्टी का लोंदा भी नहीं …
तेरी छाया की प्रति छाया ,
मेरा रंग,रूप तुझसे अलग भी नहीं ?
सीमा सिंह ||||

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