Menu
blogid : 8924 postid : 381

युधिष्ठर का ध्येय और लक्ष्य … !

khwahishein yeh bhi hain
khwahishein yeh bhi hain
  • 195 Posts
  • 470 Comments

युधिष्ठर का ध्येय और लक्ष्य … !
हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट द्वारा पांडु- पुत्रों को राज्य का खांडव प्रस्थ हिस्से में दिया गया ,जिसे पांडव भाइयों ने अपनी सुझ-बूझ ,लगन से देव राज इंद्र के स्वर्ग समान इन्द्रप्रस्थ बनाने में कोई कोर- कसर नहीं रहने दी नतीजा साफ था ,कौरव यह सब देख जल-भुन गये और धृत राष्ट जेष्ठ पुत्र दुर्योधन इन्द्रप्रस्थ पाने को भिन्न-भिन्न षड्यंत्र कारी जाल बनाने लगा ,वो भली-भांति जानता था युधिष्ठर इस खेल में …?इसीलिए उसने ध्रूत क्रीडा को खेलने आमन्त्रण भेजा ,तब पांडु जेष्ठ पुत्र युधिष्ठर प्रति उत्तर में क्या कुछ सोचते है और हस्तिनापुर का आमन्त्रण स्वीकार कर लेते हैं आगे …!
कुंती, धर्मदेव पुत्र …
धर्मराज युधिष्ठर सदा से
शान्ति प्रिय और समर बिमुख थे …
वे युद्ध से कातर नहीं ;
कदाचित ! युद्ध से घ्रणा जरुर करते हैं …?
वे युद्ध की नियति,बीभिषिका और परिणति को …?
इसीलिए,इसीलिए हस्तिनापुर से दूर …
खांडवप्रस्थ को इंद्रप्रस्थ बनाने में, कुंती पुत्रों ने अपना मन उड़ेल दिया;
नवनिर्मित इंद्रप्रस्थ का ऐश्वर्य और सौन्दर्य …
पृथ्वी पर किसी राज्य में, ऐसा सभागृह न बना था ;
युधिष्ठर के सिंहासन का निर्माण-कौशल और सौन्दर्य …
अद्वतीय और अतुलनीय था ;
मानों स्वर्ग में इंद्र का सिंहासन …
यह सब देख,सहोदर ,
धृतराष्ट पुत्र दुर्योधन सहित समस्त कौरव …
असहिष्णु और ईष्या-द्वेष से जलने लगे
जो !
इन्द्रप्रस्थ को छल,बल से …
अपने अधीन करने की सोचने लगे ;
दुर्योधन की छाया बने …?
मामा शकुनि …?
मानों हबन में घृत का काम करने लगे,
अपनी कुटिल-चाल चलने लगे,और
धर्मराज युधिष्ठर को
बाजी- रखकर ध्रूतक्रीड़ा का आमन्त्रण भेजा …
आमन्त्रण लाये ,विवेकशील दादा विदुर …?
हतप्रभ,आशंकित …
द्रुपद नन्दनी द्रौपदी का मन ,
अशुभ चिंता से घिरने लगा …?
युधिष्ठर भी चिन्तित हैं ? फिर भी !
दुर्योधन का आमन्त्रण स्वीकार था ;
वे,जानते थे …
पराजय सुनिश्चित है,पर
युद्ध और ध्रूतक्रीडा ! एक नहीं ?
किन्तु !
दादा विदुर के चेहरे पर …?
दुःख और दुश्चिंता प्रकट करती है …
इन्द्रप्रस्थ का वैभव और यश …?
दुर्योधन को असहिष्णु कर रहा है …?
इन्द्रप्रस्थ की धन-सम्पदा उसे लोभातुर …?
अतयव ! दुष्ट बुद्धि
मामा-शकुनि के परामर्श पर …?
दुर्योधन ने अधर्म पथ से
पंच-पांडवों की धन सम्पदा को ? उनकी इसी नियति ने
ध्रूतक्रीडा का आह्वान भेजा …
दुर्योधन,मामा शकुनि के मन का
छल-कपट स्पष्ट :जान कर …?
युधिष्ठर ! दुःख और क्षोम से म्लान हो गये ;
फिर भी ! हस्तिनापुर चलने को तैयार हो गये
यही सोचते हुए …
जीवन में,हर कदम भाग्य नियंत्रित करता है
अत: अतिरिक्त न सोच कर …
खेल में भाग लेना ही विधान है ;
धर्मराज का दृढ-चित निर्णय सुन …
विदुषी द्रौपदी असहज हो बोली
मेरी इच्छा,अनिच्छा अथवा आशंका का
मोल ही क्या है ?
फिर भी ! राज्य,धर्म हित में कहूँगी …
धर्मराज का भाग्य वाद का सहारा लेना उचित नहीं …?
जो ! जानते हुए भी …?
इसे आत्म हत्या के सिवा और
क्या कहा जाये अथवा युद्ध कातर युधिष्ठर !
क्या !युद्ध टालने के लिए ही …
दुर्योधन के आमन्त्रण को स्वीकार रहे हैं ?
शायद ! उन्हें दुर्योधन के बाल हठ स्वभाव पर आशंका है
जिसका मन, विवेक के अधीन नहीं है ;
जो धन-रत्न के लोभ में,कभी भी युद्ध घोषित …?
धर्म देवता पुत्र धर्मराज- युधिष्ठर जानते ,
आदमी की कामना और वासना ही दुष्ट- दानव …
ऐसे में, द्वंद होता है
मन और विवेक के बीच !
वे जानते हैं; सहोदर- कौरवों में
कामना रूपी दानव बलबान है …?
निश्चित ही विवेक को वासना निगल जाएगी ;
स्रष्टि चिर नूतन,चिर सुंदर है ;
अत: धन ,रत्न ,ऐश्वर्य …
बाजी- ध्रूतक्रीडा में हारने में कोई दुःख नहीं !
जीवन -शान्ति से बड़ा कोई धन ,यश ,वैभव नहीं …
अत:, इन्द्रप्रस्थ राज्य -सिंहासन पर बैठे
धर्मराज युधिष्ठर का
यही नित्य- कर्म लक्ष्य और यही ध्येय है !
सीमा सिंह |||||

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply