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छाया दर छाया …?

khwahishein yeh bhi hain
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छाया दर छाया …?
जीवन स्रोत
साक्ष्यों में ,
अपने विश्वास के मूल
संकल्पों से बंधी ,
निरपराध होकर भी
अक्सर ! खिड़की,दरवाजों के
कटघरे में खड़ी की जाती ;
पर्दे चुपचाप देखते रहते ?
जब-जब मैं !
सवालों की बौछारों से नहलाई जाती …
फिर भी ! छाया दर छाया
बिम्ब-प्रतिबिम्ब में
अपनी छवि निहारती …;
यह सोचकर
आखिर ! कहीं तो मेरा अस्तित्व होगा ,
कहीं तो ! ये पदचिन्ह …?
आखिर ! कही तो ले के जायेगें
आखिर ! इस- निच्छल जीवन धारा की
कोई तो ! परिणति होगी …!
सीमा सिंह ॥॥

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